श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 24: भगवान् का मत्स्यावतार  »  श्लोक 47
 
 
श्लोक  8.24.47 
 
 
जनोऽबुधोऽयं निजकर्मबन्धन:
सुखेच्छया कर्म समीहतेऽसुखम् ।
यत्सेवया तां विधुनोत्यसन्मतिं
ग्रन्थिं स भिन्द्याद् धृदयं स नो गुरु: ॥ ४७ ॥
 
अनुवाद
 
  इस भौतिक संसार में सुख प्राप्ति की आशा में, मूर्ख जीव सकाम कर्म करता है जिससे उसे केवल दुख ही मिलता है। किन्तु भगवान की सेवा करने से ऐसा प्राणी सुख की झूठी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। हे मेरे गुरु, मेरे हृदय से झूठी इच्छाओं की गाँठ काट दें।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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