स चाहं वित्तलोभेन प्रत्याचक्षे कथं द्विजम् ।
प्रतिश्रुत्य ददामीति प्राह्रादि: कितवो यथा ॥ ३ ॥
अनुवाद
मैं महाराज प्रह्लाद का पौत्र हूँ। जब मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मैं यह भूमि दान में दूँगा तो फिर धन के लालच में मैं अपने वादे से कि तरह मुकर सकता हूँ? मैं एक सामान्य ठग की तरह कैसे बर्ताव कर सकता हूँ, खासकर एक ब्राह्मण के प्रति?