श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 2: गजेन्द्र का संकट  »  श्लोक 23-24
 
 
श्लोक  8.2.23-24 
 
 
स घर्मतप्त: करिभि: करेणुभि-
र्वृतो मदच्युत्करभैरनुद्रुत: ।
गिरिं गरिम्णा परित: प्रकम्पयन्
निषेव्यमाणोऽलिकुलैर्मदाशनै: ॥ २३ ॥
सरोऽनिलं पङ्कजरेणुरूषितं
जिघ्रन्विदूरान्मदविह्वलेक्षण: ।
वृत: स्वयूथेन तृषार्दितेन तत्
सरोवराभ्यासमथागमद्‌द्रुतम् ॥ २४ ॥
 
अनुवाद
 
  हाथियों का राजा गजपति, अपने झुंड के साथी हाथियों और हथिनियों से घिरा हुआ था और उसके पीछे-पीछे हाथी के बच्चे भी चल रहे थे। वह अपने शरीर के वजन से त्रिकूट पर्वत को चारों ओर से हिला रहा था। उसके पसीना छूट रहा था, उसके मुँह से मद की लार टपक रही थी और उसकी दृष्टि नशे से भरी थी। मधु पी-पीकर भौरें उसकी सेवा कर रहे थे और वह दूर से ही उन कमल फूलों के रजकणों की सुगंध महसूस कर रहा था, जो मंद पवन द्वारा उस झील से ले जाई जा रही थी। इस तरह, अपने साथियों से घिरा हुआ, जो प्यास से तड़प रहे थे, वह जल्द ही झील के तट पर आ पहुँचा।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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