श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 19: बलि महाराज से वामनदेव द्वारा दान की याचना  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  8.19.36 
 
 
न तद्दानं प्रशंसन्ति येन वृत्तिर्विपद्यते ।
दानं यज्ञस्तप: कर्म लोके वृत्तिमतो यत: ॥ ३६ ॥
 
अनुवाद
 
  विद्वान व्यक्ति उस दान की प्रशंसा नहीं करते जिससे किसी की अपनी जीविका खतरे में पड़ जाती है। दान, यज्ञ, तप और फलदायी कर्म वही कर सकता है जो अपनी जीविका कमाने में पूर्ण रूप से सक्षम हो (जो अपना भरण-पोषण नहीं कर सकता उसके लिए ये कार्य संभव नहीं हैं)।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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