यदृच्छालाभतुष्टस्य तेजो विप्रस्य वर्धते ।
तत् प्रशाम्यत्यसन्तोषादम्भसेवाशुशुक्षणि: ॥ २६ ॥
अनुवाद
वह ब्राह्मण जो उपलब्ध परिस्थितियों से ही संतुष्ट रहता है, उसकी आध्यात्मिक शक्ति निरंतर बढ़ती रहती है, लेकिन जो असंतोष रखता है उसकी आध्यात्मिक शक्ति उसी प्रकार कम हो जाती है जैसे आग पर पानी छिड़कने से उसकी ज्वलन शक्ति कम हो जाती है।