अप्यभद्रं न विप्राणां भद्रे लोकेऽधुनागतम् ।
न धर्मस्य न लोकस्य मृत्योश्छन्दानुवर्तिन: ॥ ४ ॥
अनुवाद
हे सज्जन! मुझे विस्मय हो रहा है कि कहीं अधर्म हो तो नहीं गया, ब्राह्मण समूह को कहीं कोई हानि तो नहीं हुई अथवा काल के स्वभाव में पड़ी हुई जनता का कोई अनहोना तो नहीं हो गया?