श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 12: मोहिनी-मूर्ति अवतार पर शिवजी का मोहित होना  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  8.12.43 
 
 
अयि व्यपश्यस्त्वमजस्य मायांपरस्य पुंस: परदेवताया: ।
अहं कलानामृषभोऽपि मुह्येययावशोऽन्ये किमुतास्वतन्त्रा: ॥ ४३ ॥
 
अनुवाद
 
  शिवजी ने कहा: हे देवी! अब तुमने भगवान् की माया देख ली है, जो सर्वत्र व्याप्त होने के कारण और सबके अजन्मा स्वामी होने के कारण अनेक रूपों में देखी जा सकती और मानी जा सकती है। यद्यपि मैं इनके प्रमुख विस्तारों में से एक हूँ तो भी मैं उनकी शक्ति से भ्रमित हो गया था। तो फिर, उन लोगों के विषय में क्या कहा जाये जो माया पर पूर्णत: आश्रित हैं और अपनी इन्द्रियों के ज्ञान और भ्रम में फंसे हुए हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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