श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 9: प्रह्लाद द्वारा नृसिंह देव का प्रार्थनाओं से शान्त किया जाना  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  7.9.45 
 
 
यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तुच्छं
कण्डूयनेन करयोरिव दु:खदु:खम् ।
तृप्यन्ति नेह कृपणा बहुदु:खभाज:
कण्डूतिवन्मनसिजं विषहेत धीर: ॥ ४५ ॥
 
अनुवाद
 
  विषयी जीवन की तुलना खुजली को दूर करने के लिए दो हाथों को आपस में रगड़ने से की गई है। तथाकथित गृहस्थ, जिन्हें कोई आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है, यह मानते हैं कि यह खुजलाहट अत्यधिक सुखदायी है, जबकि वास्तव में यह दुख का मूल है। कृपण, जो ब्राह्मणों के बिल्कुल विपरीत हैं, बार-बार कामसुख भोगने के बाद भी संतुष्ट नहीं होते। किन्तु जो धीर और संयमी हैं और इस खुजलाहट को सह लेते हैं, उन्हें मूर्खों और धूर्तों जैसे कष्ट नहीं उठाने पड़ते।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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