प्रायेण देव मुनय: स्वविमुक्तिकामा
मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा: ।
नैतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्ष एको
नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ॥ ४४ ॥
अनुवाद
हे भगवान् नृसिंहदेव, मैं देख रहा हूँ कि सन्त पुरुष तो बहुत हैं, मगर उनका ध्यान सिर्फ अपने मोक्ष पर है। वो बड़े-बड़े शहरों की चिंता किए बिना ही मौन व्रत धारण करके ध्यान लगाने के लिए हिमालय या जंगलों में चले जाते हैं, दूसरों की मुक्ति में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं। लेकिन जहाँ तक मेरी बात है, मैं इन बेचारे मूर्खों और शातिरों को छोड़कर अकेले अपने लिए मुक्ति नहीं चाहता। मैं जानता हूँ कि कृष्णभावनामृत के बिना और आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण किए बिना कोई सुखी नहीं हो सकता। इसलिए मेरी इच्छा है कि मैं उन सबको वापस आपके चरणकमलों की शरण में ले आऊँ।