श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 9: प्रह्लाद द्वारा नृसिंह देव का प्रार्थनाओं से शान्त किया जाना  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  7.9.39 
 
 
नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ
सम्प्रीयते दुरितदुष्टमसाधु तीव्रम् ।
कामातुरं हर्षशोकभयैषणार्तं
तस्मिन्कथं तव गतिं विमृशामि दीन: ॥ ३९ ॥
 
अनुवाद
 
  वैकुण्ठलोक के चिंतामुक्त स्वामी, मेरा मन बेहद पापी और वासनापूर्ण है। कभी यह खुद को सुखी कहता है, तो कभी दुखी। मेरा मन शोक और डर से भरा है और हमेशा ज्यादा से ज्यादा पैसे की तलाश में रहता है। इस तरह यह बेहद प्रदूषित हो गया है और आपकी कथाओं से कभी संतुष्ट नहीं होता। इसलिए मैं बेहद गिरा हुआ और बदहाल हूँ। जीवन की ऐसी स्थिति में मैं आपके कार्यों की व्याख्या कैसे कर सकता हूँ?
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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