कुत्राशिष: श्रुतिसुखा मृगतृष्णिरूपा:
क्वेदं कलेवरमशेषरुजां विरोह: ।
निर्विद्यते न तु जनो यदपीति विद्वान्
कामानलं मधुलवै: शमयन्दुरापै: ॥ २५ ॥
अनुवाद
इस भौतिक संसार में, प्रत्येक जीव किसी न किसी भावी खुशी की इच्छा रखता है, जो कि रेगिस्तान में मृग मरीचिका के समान है। रेगिस्तान में जल कहाँ है? दूसरे शब्दों में, इस भौतिक दुनिया में खुशी कहाँ है? जहाँ तक इस शरीर का सवाल है, इसका मूल्य ही क्या है? यह विभिन्न रोगों का स्रोत मात्र है। तथाकथित दार्शनिक, वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ इसे भली-भाँति जानते हैं फिर भी वे क्षणिक सुख की आकांक्षा रखते हैं। सुख प्राप्त कर पाना अत्यंत कठिन है लेकिन वे अपनी इंद्रियों को वश में न रख पाने के कारण भौतिक दुनिया के तथाकथित सुख के पीछे भागते हैं और सही निष्कर्ष तक कभी नहीं पहुँच पाते।