श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 9: प्रह्लाद द्वारा नृसिंह देव का प्रार्थनाओं से शान्त किया जाना  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  7.9.21 
 
 
माया मन: सृजति कर्ममयं बलीय:
कालेन चोदितगुणानुमतेन पुंस: ।
छन्दोमयं यदजयार्पितषोडशारं
संसारचक्रमज कोऽतितरेत् त्वदन्य: ॥ २१ ॥
 
अनुवाद
 
  हे प्रभु, हे सर्वोच्च शाश्वत, आपने अपने पूर्णांश का विस्तार करके काल से आंदोलित होने वाली आपकी बाहरी ऊर्जा की शक्ति के माध्यम से जीवों के सूक्ष्म शरीरों का निर्माण किया है। इस तरह मन जीव को असीमित प्रकार की इच्छाओं में फंसा देता है जिन्हें कर्मकांड के वैदिक निर्देशों और सोलह तत्वों द्वारा पूरा किया जाना होता है। भला ऐसा कौन है जो आपके चरणकमलों का आश्रय ग्रहण किए बिना इस बंधन से मुक्त हो सकता है?
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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