सोऽहं प्रियस्य सुहृद: परदेवताया
लीलाकथास्तव नृसिंह विरिञ्चगीता: ।
अञ्जस्तितर्म्यनुगृणन्गुणविप्रमुक्तो
दुर्गाणि ते पदयुगालयहंससङ्ग: ॥ १८ ॥
अनुवाद
हे भगवान नृसिंहदेव, आपके प्रेममय दिव्य सेवा में मुक्त आत्माओं (हंसों) की संगति में जुड़कर मैं प्रकृति के तीन गुणों के स्पर्श से पूरी तरह से शुद्ध हो जाऊंगा और आपके महान गुणों का कीर्तन कर पाऊंगा जो मेरे लिए अत्यंत प्रिय हैं। मैं ब्रह्मा और उनके शिष्यों के पदचिन्हों पर चलते हुए आपकी महिमाओं का कीर्तन करूंगा। इस तरह से मैं निस्संदेह अज्ञान के सागर को पार कर पाऊंगा।