श्रीइन्द्र उवाच
प्रत्यानीता: परम भवता त्रायता न: स्वभागा
दैत्याक्रान्तं हृदयकमलं तद्गृहं प्रत्यबोधि ।
कालग्रस्तं कियदिदमहो नाथ शुश्रूषतां ते
मुक्तिस्तेषां न हि बहुमता नारसिंहापरै: किम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद
राजा इन्द्र ने कहा: हे परमेश्वर, आप हमारे मुक्तिदाता और रक्षक हैं। आपने असुर से हमारे वास्तविक यज्ञ भाग, जो कि वास्तव में आपके हैं, वापस ले लिए हैं। चूंकि असुरराज हिरण्यकशिपु बहुत ही भयानक था, इसलिए हमारे हृदय, जो आपके स्थायी निवास हैं, उस पर उसने कब्जा कर लिया था। अब आपकी उपस्थिति से हमारे हृदय का निराशा और अंधकार दूर हो गया है। हे प्रभु, जो लोग हमेशा आपकी सेवा में लगे रहते हैं, उनके लिए सारा भौतिक ऐश्वर्य तुच्छ है, क्योंकि आपकी सेवा मोक्ष से भी बढ़कर है। वे मोक्ष की भी परवाह नहीं करते, काम, अर्थ और धर्म के विषय में तो क्या कहना?