स सत्त्वमेनं परितो विपश्यन्
स्तम्भस्य मध्यादनुनिर्जिहानम् ।
नायं मृगो नापि नरो विचित्र-
महो किमेतन्नृमृगेन्द्ररूपम् ॥ १८ ॥
अनुवाद
जब हिरण्यकशिपु उस ध्वनि के स्रोत को खोजने के लिए चारों ओर देख रहा था, उस खंभा से भगवान का एक अद्भुत रूप निकला जिसे न तो मनुष्य कहा जा सकता है और न ही शेर। हिरण्यकशिपु आश्चर्यचकित हुआ, "यह कौन सा प्राणी है, जो आधा पुरुष और आधा शेर है?"