सोऽहं विकत्थमानस्य शिर: कायाद्धरामि ते ।
गोपायेत हरिस्त्वाद्य यस्ते शरणमीप्सितम् ॥ १३ ॥
अनुवाद
अतः, अब मैं तुम्हारे शरीर से तुम्हारा शिर छिन्न कर दूँगा क्योंकि तुम बहुत अधिक प्रलाप कर रहे हो। अब मैं देखना चाहता हूँ कि तुम्हारा पूजनीय ईश्वर तुम्हारी रक्षा कैसे करता है। मैं यह देखना चाहता हूँ।