दस्यून्पुरा षण् न विजित्य लुम्पतो
मन्यन्त एके स्वजिता दिशो दश ।
जितात्मनो ज्ञस्य समस्य देहिनां
साधो: स्वमोहप्रभवा: कुत: परे ॥ १० ॥
अनुवाद
पहले ज़माने में आपके जैसे कई मूर्ख हुए हैं जिन्होंने उन छह शत्रुओं पर विजय नहीं पाई जो शरीर रूपी सम्पत्ति को चुरा ले जाते हैं। ये मूर्ख यह सोचकर गर्व करते हैं कि "मैंने तो दसों दिशाओं के सारे शत्रुओं को जीत लिया है।" लेकिन अगर कोई व्यक्ति इन छह शत्रुओं पर विजयी होता है और सभी जीवों के साथ समान व्यवहार करता है, तो उसके लिए कोई शत्रु नहीं होता। शत्रु की कल्पना सिर्फ अज्ञानता की वजह से की जाती है।