श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 6: प्रह्लाद द्वारा अपने असुर सहपाठियों को उपदेश  »  श्लोक 17-18
 
 
श्लोक  7.6.17-18 
 
 
यतो न कश्चित् क्व‍ च कुत्रचिद् वा
दीन: स्वमात्मानमलं समर्थ: ।
विमोचितुं कामद‍ृशां विहार-
क्रीडामृगो यन्निगडो विसर्ग: ॥ १७ ॥
ततो विदूरात् परिहृत्य दैत्या
दैत्येषु सङ्गं विषयात्मकेषु ।
उपेत नारायणमादिदेवं
स मुक्तसङ्गैरिषितोऽपवर्ग: ॥ १८ ॥
 
अनुवाद
 
  हे मित्रो, हे दानव पुत्रों, निश्चित है कि भगवान के ज्ञान से रहित कोई भी अपने को किसी काल या देश में मुक्त करने में समर्थ नहीं रहा है। उल्टा, ऐसे ज्ञानहीन लोग भौतिक नियमों से जकड़े रहते हैं। वे वस्तुतः इंद्रिय विषय में लिप्त रहते हैं और उनका लक्ष्य स्त्रियाँ होती हैं। बेशक, ऐसे लोग आकर्षक स्त्रियों के हाथों के खिलौने बने रहते हैं। ऐसी जीवन-धारणाओं के शिकार बनकर वे बच्चों, पौत्रों और परपौत्रों से घिरे रहते हैं और इस तरह वे भौतिक बंधनों की जंजीरों से जकड़े जाते हैं। जो लोग ऐसी जीवन धारणा में बहुत अधिक लिप्त रहते हैं, उन्हें राक्षस कहा जाता है। इसलिए, यद्यपि तुम राक्षसों के पुत्र हो, फिर भी ऐसे व्यक्तियों से दूर रहो और भगवान नारायण की शरण लो, जो सभी देवताओं के मूल हैं, क्योंकि नारायण-भक्तों का परम लक्ष्य भौतिक अस्तित्व के बंधन से मुक्ति पाना है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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