कुटुम्बपोषाय वियन्निजायु
र्न बुध्यतेऽर्थं विहतं प्रमत्त: ।
सर्वत्र तापत्रयदु:खितात्मा
निर्विद्यते न स्वकुटुम्बराम: ॥ १४ ॥
अनुवाद
अत्यधिक आसक्त व्यक्ति समझ ही नहीं पाता कि वह अपना मूल्यवान जीवन अपने ही परिवार के पालन-पोषण में बर्बाद कर रहा है। असीम सत्य के बोध के लिए उपयुक्त मनुष्य जीवन का उसका उद्देश्य धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है पर उसे इसकी भनक भी नहीं लगती। फिर भी वह खास ख्याल रखता है कि कुप्रबंधन की वजह से एक भी पाई बर्बाद न हो। इस तरह संसार में आसक्त व्यक्ति हमेशा तीन तरह के कष्टों को सहता रहता है, लेकिन फिर भी वह संसार से विरक्त नहीं हो पाता।