श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 6: प्रह्लाद द्वारा अपने असुर सहपाठियों को उपदेश  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  7.6.14 
 
 
कुटुम्बपोषाय वियन्निजायु
र्न बुध्यतेऽर्थं विहतं प्रमत्त: ।
सर्वत्र तापत्रयदु:खितात्मा
निर्विद्यते न स्वकुटुम्बराम: ॥ १४ ॥
 
अनुवाद
 
  अत्यधिक आसक्त व्यक्ति समझ ही नहीं पाता कि वह अपना मूल्यवान जीवन अपने ही परिवार के पालन-पोषण में बर्बाद कर रहा है। असीम सत्य के बोध के लिए उपयुक्त मनुष्य जीवन का उसका उद्देश्य धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है पर उसे इसकी भनक भी नहीं लगती। फिर भी वह खास ख्याल रखता है कि कुप्रबंधन की वजह से एक भी पाई बर्बाद न हो। इस तरह संसार में आसक्त व्यक्ति हमेशा तीन तरह के कष्टों को सहता रहता है, लेकिन फिर भी वह संसार से विरक्त नहीं हो पाता।
 
 
 
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