श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 5: हिरण्यकशिपु का साधु पुत्र प्रह्लाद महाराज  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  7.5.38 
 
 
सर्वैरुपायैर्हन्तव्य: सम्भोजशयनासनै: ।
सुहृल्लिङ्गधर: शत्रुर्मुनेर्दुष्टमिवेन्द्रियम् ॥ ३८ ॥
 
अनुवाद
 
  जैसे असंयमित इंद्रियाँ आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने वाले योगियों की शत्रु होती हैं, वैसे ही यह प्रह्लाद भी मित्र प्रतीत होने पर भी मेरा शत्रु है क्योंकि इस पर मेरा वश नहीं चलता है। इसलिए इस शत्रु को खाते, बैठते या सोते हुए, हर तरह से मारना ही होगा।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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