श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 5: हिरण्यकशिपु का साधु पुत्र प्रह्लाद महाराज  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  7.5.32 
 
 
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्‌घ्रिं
स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थ: ।
महीयसां पादरजोऽभिषेकं
निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥ ३२ ॥
 
अनुवाद
 
  जब तक भौतिकतावादी प्रवृत्ति के लोग उन वैष्णवों के चरणकमलों की धूलि से स्नान नहीं करते हैं जो भौतिक संदूषण से पूर्ण रूप से मुक्त हैं, वे उस भगवान के चरणकमलों से जुड़ नहीं सकते जिनकी उनके असामान्य कार्यों के लिए महिमा गाई जाती है। केवल कृष्णभावनामृत में तल्लीन होकर और भगवान के चरणकमलों की शरण में जाकर ही व्यक्ति भौतिक संदूषण से मुक्त हो सकता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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