श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 5: हिरण्यकशिपु का साधु पुत्र प्रह्लाद महाराज  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  7.5.30 
 
 
श्रीप्रह्राद उवाच
मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् ।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुन: पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ॥ ३० ॥
 
अनुवाद
 
  प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया: जो प्राणी अपनी असंयमित इन्द्रियों के कारण अति भौतिकतावादी जीवन शैली अपनाते हैं, वे नरकगामी होते हैं तथा बार-बार उसी को चबाते हैं जो पहले ही चबाया जा चुका होता है। ऐसे लोगों का श्री कृष्ण के प्रति झुकाव न तो दूसरों के उपदेशों से, न अपने निजी प्रयासों से और न दोनों को मिलाकर कभी भी नहीं होता।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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