श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 5: हिरण्यकशिपु का साधु पुत्र प्रह्लाद महाराज  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  7.5.14 
 
 
यथा भ्राम्यत्ययो ब्रह्मन् स्वयमाकर्षसन्निधौ ।
तथा मे भिद्यते चेतश्चक्रपाणेर्यद‍ृच्छया ॥ १४ ॥
 
अनुवाद
 
  हे ब्राह्मणो (शिक्षकों), जैसे चुम्बक द्वारा आकर्षित किया हुआ लोहा अपने आप चुम्बक की ओर बढ़ता है, उसी प्रकार भगवान विष्णु की इच्छा से मेरी चेतना परिवर्तित होकर, उनके चक्रधारी स्वरूप की ओर आकर्षित होती है। इसलिए, मेरी कोई स्वतंत्रता नहीं है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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