यत्र विद्रुमसोपाना महामारकता भुव: ।
यत्र स्फाटिककुड्यानि वैदूर्यस्तम्भपङ्क्तय: ॥ ९ ॥
यत्र चित्रवितानानि पद्मरागासनानि च ।
पय:फेननिभा: शय्या मुक्तादामपरिच्छदा: ॥ १० ॥
कूजद्भिर्नूपुरैर्देव्य: शब्दयन्त्य इतस्तत: ।
रत्नस्थलीषु पश्यन्ति सुदती: सुन्दरं मुखम् ॥ ११ ॥
तस्मिन्महेन्द्रभवने महाबलो
महामना निर्जितलोक एकराट् ।
रेमेऽभिवन्द्याङ्घ्रियुग: सुरादिभि:
प्रतापितैरूर्जितचण्डशासन: ॥ १२ ॥
अनुवाद
राजा इंद्र के महल की सीढ़ियाँ मूँगे की थीं, फर्श अमूल्य पन्नों से जड़ा था, दीवारें स्फटिक की थीं और खंभे वैदूर्य मणि के थे। उसके अद्भुत वितान सुंदर ढंग से सजाए गए थे, आसन मणियों से जड़े हुए थे और झाग के समान सफेद रेशमी बिछौने मोतियों से सजाए गए थे। वे महल में इधर-उधर घूम रही थीं, उनके घुँघरुओं से मधुर झनकार निकल रही थी और वे रत्नों में अपने सुंदर प्रतिबिंब देख रही थीं। किंतु, अत्यधिक सताए गए देवताओं को हिरण्यकशिपु के चरणों पर सिर झुकाना पड़ता था, क्योंकि उसने देवताओं को अकारण ही दंडित कर रखा था। इस प्रकार हिरण्यकशिपु उस महल में रह रहा था और सबों पर कठोरता से शासन कर रहा था।