श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 4: ब्रह्माण्ड में हिरण्यकशिपु का आतंक  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  7.4.33 
 
 
नोद्विग्नचित्तो व्यसनेषु नि:स्पृह:
श्रुतेषु द‍ृष्टेषु गुणेष्ववस्तुद‍ृक् ।
दान्तेन्द्रियप्राणशरीरधी: सदा
प्रशान्तकामो रहितासुरोऽसुर: ॥ ३३ ॥
 
अनुवाद
 
  यद्यपि प्रह्लाद महाराज का जन्म असुर वंश में हुआ था, किन्तु वे स्वयं असुर नहीं थे परन्तु भगवान विष्णु के परम भक्त थे। अन्य असुरों की तरह वे कभी भी वैष्णवों से ईर्ष्या नहीं करते थे। कठिन परिस्थिति आने पर वे कभी क्षुब्ध नहीं होते थे और वेदों में वर्णित सकाम कर्मों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भी रुचि नहीं लेते थे। निःसंदेह, वे सभी भौतिक वस्तुओं को व्यर्थ मानते थे; इसलिए वे भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित थे। वे सदैव अपनी इन्द्रियों तथा प्राणवायु पर संयम रखते थे। स्थिरबुद्धि व संकल्पमय होने के कारण उन्होंने सभी विषय-वासनाओं का दमन कर लिया था।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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