श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 4: ब्रह्माण्ड में हिरण्यकशिपु का आतंक  »  श्लोक 31-32
 
 
श्लोक  7.4.31-32 
 
 
ब्रह्मण्य: शीलसम्पन्न: सत्यसन्धो जितेन्द्रिय: ।
आत्मवत्सर्वभूतानामेकप्रियसुहृत्तम: ।
दासवत्सन्नतार्याङ्‌घ्रि: पितृवद्दीनवत्सल: ॥ ३१ ॥
भ्रातृवत्सद‍ृशे स्निग्धो गुरुष्वीश्वरभावन: ।
विद्यार्थरूपजन्माढ्यो मानस्तम्भविवर्जित: ॥ ३२ ॥
 
अनुवाद
 
  [यहाँ पर हिरण्यकशिपु के पुत्र महाराज प्रह्लाद के गुणों का उल्लेख हुआ है] वे योग्य ब्राह्मण के रूप में पूर्णतया संस्कृत, सच्चरित्र तथा परम सत्य को समझने के लिए दृढ़संकल्प थे। उन्हें अपनी इन्द्रियों तथा मन पर पूर्ण संयम था। वे परमात्मा की भाँति प्रत्येक जीव के प्रति दयालु थे और हर एक के श्रेष्ठ मित्र थे। वे सम्मानित व्यक्ति के साथ दास की भाँति व्यवहार करते थे, गरीबों के वे पिता तुल्य थे और समानधर्माओं के प्रति वे दयालु भ्राता की तरह अनुरक्त रहने वाले तथा अपने गुरुओं तथा पुराने गुरुभाइयों को भगवान् की तरह मानने वाले थे। वे उस बनावटी गर्व (मान) से पूरी तरह मुक्त थे, जो उनकी अच्छी शिक्षा, धन, सौन्दर्य व उच्च जन्म के कारण संभव था।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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