अत: शोचत मा यूयं परं चात्मानमेव वा ।
क आत्मा क: परो वात्र स्वीय: पारक्य एव वा ।
स्वपराभिनिवेशेन विनाज्ञानेन देहिनाम् ॥ ६० ॥
अनुवाद
इसलिए, तुममें से किसी को भी शरीर की हानि के लिए, चाहे वह तुम्हारा अपना शरीर हो या दूसरों का, दुख या परेशानी नहीं होनी चाहिए। यह केवल अज्ञानता है जिससे व्यक्ति शारीरिक अंतर करता है, यह सोचकर कि "मैं कौन हूँ? दूसरे लोग कौन हैं? मेरा क्या है? दूसरों का क्या है?"