श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 2: असुरराज हिरण्यकशिपु  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  7.2.43 
 
 
यथानलो दारुषु भिन्न ईयते
यथानिलो देहगत: पृथक् स्थित: ।
यथा नभ: सर्वगतं न सज्जते
तथा पुमान् सर्वगुणाश्रय: पर: ॥ ४३ ॥
 
अनुवाद
 
  जैसे अग्नि लकड़ी में रहती है, परन्तु उसे लकड़ी से अलग माना जाता है, जिस प्रकार वायु मुँह और नासिका के अंदर रहती है, लेकिन उनसे अलग मानी जाती है और जैसे आकाश सर्वव्यापी होते हुए भी किसी वस्तु से नहीं मिलता, उसी प्रकार जीव भी, जो भौतिक शरीर में कैद है, उसका स्रोत होते हुए भी उससे अलग है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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