श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 2: असुरराज हिरण्यकशिपु  »  श्लोक 42
 
 
श्लोक  7.2.42 
 
 
इदं शरीरं पुरुषस्य मोहजं
यथा पृथग्भौतिकमीयते गृहम् ।
यथौदकै: पार्थिवतैजसैर्जन:
कालेन जातो विकृतो विनश्यति ॥ ४२ ॥
 
अनुवाद
 
  जिस प्रकार एक गृहस्वामी अपने घर से भिन्न होते हुए भी अपने घर को अपने समान समझता है, उसी तरह अज्ञान के कारण बद्ध आत्मा इस शरीर को स्वयं समझती है, हालाँकि शरीर आत्मा से वास्तव में अलग है। यह शरीर पृथ्वी, जल और अग्नि के अंशों के मिलने से प्राप्त होता है और जब वे समय के साथ बदलते हैं, तो शरीर नष्ट हो जाता है। आत्मा को शरीर के इस सृजन और विनाश से कोई लेना-देना नहीं है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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