श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 2: असुरराज हिरण्यकशिपु  »  श्लोक 29-31
 
 
श्लोक  7.2.29-31 
 
 
विशीर्णरत्नकवचं विभ्रष्टाभरणस्रजम् ।
शरनिर्भिन्नहृदयं शयानमसृगाविलम् ॥ २९ ॥
प्रकीर्णकेशं ध्वस्ताक्षं रभसा दष्टदच्छदम् ।
रज:कुण्ठमुखाम्भोजं छिन्नायुधभुजं मृधे ॥ ३० ॥
उशीनरेन्द्रं विधिना तथा कृतं
पतिं महिष्य: प्रसमीक्ष्य दु:खिता: ।
हता: स्म नाथेति करैरुरो भृशं
घ्नन्त्यो मुहुस्तत्पदयोरुपापतन् ॥ ३१ ॥
 
अनुवाद
 
  वध किया हुआ राजा युद्धस्थल में लेटा हुआ था। उसका सुनहरा रत्नजटित कवच नष्ट हो गया था, उसके आभूषण और हार अपने-अपने स्थान से अलग हो गए थे, उसके बाल बिखरे हुए थे और उसकी आँखों में चमक नहीं थी। उसका पूरा शरीर खून से सना हुआ था और उसका हृदय दुश्मनों के तीरों से छिद गया था। मरते समय उसने अपना पराक्रम दिखाना चाहा, इसलिए उसके होंठ दाँतों से काट कर भिंच गये थे और दाँत उस स्थिति में थे। उसका कमल के समान सुंदर चेहरा अब काला पड़ गया था और युद्धभूमि की धूल से भरा था। तलवार और अन्य हथियारों से युक्त उसकी भुजाएँ कटकर टूट गईं थीं। जब उशीनर के राजा की रानियों ने अपने पति को इस स्थिति में पड़ा देखा तो वे रोने लगीं - "हे प्रभु, तुम्हारे मारे जाने से हम भी मर चुकी हैं।" ये शब्द बार-बार दोहराते हुए वे अपनी छाती पीट-पीट कर मृत राजा के चरणों में गिर पड़ीं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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