श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 15: सुसंस्कृत मनुष्यों के लिए उपदेश  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  7.15.45 
 
 
यावन्नृकायरथमात्मवशोपकल्पं
धत्ते गरिष्ठचरणार्चनया निशातम् ।
ज्ञानासिमच्युतबलो दधदस्तशत्रु:
स्वानन्दतुष्ट उपशान्त इदं विजह्यात् ॥ ४५ ॥
 
अनुवाद
 
  जब तक मनुष्य को इस शरीर को स्वीकार करना है जिसमें अंग-प्रत्यंग और साजो सामान है और जो पूरी तरह से उसके नियंत्रण में नहीं है, तब तक उसे अपने श्रेष्ठ जनों, जैसे कि उसके गुरु और गुरु के पूर्ववर्ती व्यक्तियों के चरण कमलों में रहना चाहिए। उनकी कृपा से वह ज्ञान की तलवार को तेज कर सकता है और भगवान की कृपा की शक्ति से उपर्युक्त शत्रुओं को परास्त कर सकता है। इस प्रकार भक्त को अपने ही दिव्य आनंद में डूब जाना चाहिए और फिर वह अपना शरीर छोड़कर अपनी आध्यात्मिक पहचान फिर से प्राप्त कर सकता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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