श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 15: सुसंस्कृत मनुष्यों के लिए उपदेश  »  श्लोक 42
 
 
श्लोक  7.15.42 
 
 
अक्षं दशप्राणमधर्मधर्मौ
चक्रेऽभिमानं रथिनं च जीवम् ।
धनुर्हि तस्य प्रणवं पठन्ति
शरं तु जीवं परमेव लक्ष्यम् ॥ ४२ ॥
 
अनुवाद
 
  शरीर के अंदर काम करने वाली दस तरह की वायुओं की तुलना रथ के पहियों की तीलियों से की जाती है, और इस पहिए के ऊपर और नीचे के हिस्से को धर्म और अधर्म कहा जाता है। देह-अभिमान में रहने वाला जीव रथ का स्वामी है। वैदिक प्रणव मंत्र ही धनुष है, साक्षात् शुद्ध जीव तीर है और परम पुरुष उसका लक्ष्य है।
 
 
 
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