श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 15: सुसंस्कृत मनुष्यों के लिए उपदेश  »  श्लोक 32-33
 
 
श्लोक  7.15.32-33 
 
 
प्राणापानौ सन्निरुन्ध्यात्पूरकुम्भकरेचकै: ।
यावन्मनस्त्यजेत कामान्स्वनासाग्रनिरीक्षण: ॥ ३२ ॥
यतो यतो नि:सरति मन: कामहतं भ्रमत् ।
ततस्तत उपाहृत्य हृदि रुन्ध्याच्छनैर्बुध: ॥ ३३ ॥
 
अनुवाद
 
  नाक की नोक पर लगातार दृष्टि लगाकर विद्वान योगी श्वास लेने का अभ्यास करते हैं, जिसे पूरक, कुम्भक और रेचक के नाम से जाना जाता है - अर्थात् श्वास अंदर लेना, बाहर निकालना और फिर दोनों को रोकना। इस प्रकार योगी अपने मन को भौतिक मोह से रोकता है और सभी मानसिक इच्छाओं का त्याग कर देता है। जैसे ही मन कामुक इच्छाओं से हारकर इंद्रियसुख की भावनाओं की ओर बढ़ता है, योगी को उसे तुरंत वापस लाकर अपने हृदय में बाँध लेना चाहिए।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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