यथा वार्तादयो ह्यर्था योगस्यार्थं न बिभ्रति ।
अनर्थाय भवेयु: स्म पूर्तमिष्टं तथासत: ॥ २९ ॥
अनुवाद
जैसे व्यवसायिक कार्यकलाप या व्यवसाय में होने वाले लाभ आध्यात्मिक उन्नति में सहायक नहीं होते हैं अपितु भौतिक बंधन का कारण बनते हैं, ठीक उसी प्रकार वैदिक कर्मकांड उस व्यक्ति की सहायता नहीं कर सकते जो भगवान के प्रति समर्पित नहीं है।