श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 15: सुसंस्कृत मनुष्यों के लिए उपदेश  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  7.15.16 
 
 
सन्तुष्टस्य निरीहस्य स्वात्मारामस्य यत्सुखम् ।
कुतस्तत्कामलोभेन धावतोऽर्थेहया दिश: ॥ १६ ॥
 
अनुवाद
 
  जो संतुष्ट और प्रसन्नचित्त होता है साथ ही हर हृदय में वास कर रहे परम पुरुष ईश्वर के साथ अपने कर्मो को जोड़ता है, वो बिना जीविका के प्रयासों से ही परमात्मा के सुख का आनंद लेता है। वहीं, एक भौतिकवादी मनुष्य के लिए ऐसा सुख और कहाँ है जो वासना और लालच से प्रेरित होता है और धन इकट्ठा करने की चाहत में हर दिशा में भटकता रहता है?
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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