एक एव चरेद्भिक्षुरात्मारामोऽनपाश्रय: ।
सर्वभूतसुहृच्छान्तो नारायणपरायण: ॥ ३ ॥
अनुवाद
आत्मतुष्ट संन्यासी को द्वार-द्वार भीख मांगकर जीवन व्यतीत करना चाहिए। किसी भी व्यक्ति या स्थान पर निर्भर न रहते हुए उन्हें सभी प्राणियों का मित्र होना चाहिए और नारायण का शांत, अनन्य भक्त होना चाहिए। इस प्रकार उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान में विचरण करना चाहिए।