जलं तदुद्भवैश्छन्नं हित्वाज्ञो जलकाम्यया ।
मृगतृष्णामुपाधावेत्तथान्यत्रार्थदृक् स्वत: ॥ २९ ॥
अनुवाद
ठीक वैसे ही जैसे एक हिरण, अपनी अज्ञानता के कारण, घास से ढँके कुएँ में दिख रहे पानी को नहीं देख पाता और पानी के लिए इधर-उधर दौड़ता रहता है, ठीक उसी तरह से यह जीव भी, जो भौतिक शरीर से आवृत है, अपने अंदर के सुख को नहीं देख पाता और भौतिक जगत में सुख की खोज में लगा रहता है।