श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 13: सिद्ध पुरुष का आचरण  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  7.13.28 
 
 
इत्येतदात्मन: स्वार्थं सन्तं विस्मृत्य वै पुमान् ।
विचित्रामसति द्वैते घोरामाप्नोति संसृतिम् ॥ २८ ॥
 
अनुवाद
 
  इस प्रकार शरीर के अंदर रहने वाली आत्मा अपने हित को भूल जाती है क्योंकि वह अपनी पहचान शरीर से बनाने लगती है। क्योंकि शरीर भौतिक होता है, इसलिए उसका स्वाभाविक झुकाव भौतिक दुनिया की विविधताओं की ओर होता है। इस तरह जीवन इकाई भौतिक अस्तित्व के दुखों को भोगती है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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