श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 13: सिद्ध पुरुष का आचरण  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  7.13.1 
 
 
श्रीनारद उवाच
कल्पस्त्वेवं परिव्रज्य देहमात्रावशेषित: ।
ग्रामैकरात्रविधिना निरपेक्षश्चरेन्महीम् ॥ १ ॥
 
अनुवाद
 
  श्री नारद मुनि ने कहा : जो व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान की साधना कर सकता है उसे सारे भौतिक संबंधों का त्याग कर देना चाहिए और देह को जीवंत बनाए रखते हुए उसे हर गाँव में सिर्फ एक रात बिताते हुए एक जगह से दूसरी जगह भ्रमण करना चाहिए। इस तरह से संन्यासी को शरीर की ज़रूरतों के लिए किसी पर आश्रित हुए बिना सारे संसार में विचरण करना चाहिए।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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