उप्यमानं मुहु: क्षेत्रं स्वयं निर्वीर्यतामियात् ।
न कल्पते पुन: सूत्यै उप्तं बीजं च नश्यति ॥ ३३ ॥
एवं कामाशयं चित्तं कामानामतिसेवया ।
विरज्येत यथा राजन्नग्निवत् कामबिन्दुभि: ॥ ३४ ॥
अनुवाद
हे राजन, यदि किसी कृषि क्षेत्र को बार-बार जोता और बोया जाता है, तो उसकी उत्पादन क्षमता घट जाती है और जो भी बीज वहाँ बोए जाते हैं वे नष्ट हो जाते हैं। जैसे घी की एक-एक बूंद डालने से आग कभी नहीं बुझती, लेकिन घी की धारा से आग बुझ जाएगी, उसी प्रकार वासनापूर्ण इच्छाओं में अत्यधिक लिप्त होने पर ऐसी इच्छाएँ पूरी तरह से नष्ट हो जाती हैं।