श्रीप्रह्राद उवाच
वरं वरय एतत्ते वरदेशान्महेश्वर ।
यदनिन्दत्पिता मे त्वामविद्वांस्तेज ऐश्वरम् ॥ १५ ॥
विद्धामर्षाशय: साक्षात्सर्वलोकगुरुं प्रभुम् ।
भ्रातृहेति मृषादृष्टिस्त्वद्भक्ते मयि चाघवान् ॥ १६ ॥
तस्मात्पिता मे पूयेत दुरन्ताद् दुस्तरादघात् ।
पूतस्तेऽपाङ्गसंदृष्टस्तदा कृपणवत्सल ॥ १७ ॥
अनुवाद
प्रह्लाद महाराज ने कहा - हे भगवान, आप पापियों पर इतने कृपालु हैं इसीलिए मैं आपसे एक ही वरदान माँगता हूँ। मुझे पता है कि आपने मेरे पिता को मृत्यु के समय अपनी दयालु दृष्टि डाल कर उन्हें पवित्र कर दिया था, लेकिन वह आपकी शक्ति और महिमा को ना जानते हुए भी आप पर क्रोधित थे क्यूंकी वह यह सोचते थे कि आपने ही उनके भाई की हत्या करवाई है। इस तरह उन्होंने सभी जीवों के गुरु आपकी सीधे-सीधे निंदा की और उन्होंने मेरे ऊपर, जो आपका भक्त था, अनेक पाप किये। मैं चाहता हूँ कि उन्हें इन पापों से मुक्ति मिल जाए।