ज्योतिरादिरिवाभाति सङ्घातान्न विविच्यते ।
विदन्त्यात्मानमात्मस्थं मथित्वा कवयोऽन्तत: ॥ ९ ॥
अनुवाद
प्रत्येक जीव के हृदय में सर्वव्यापी भगवान वास करते हैं और उनकी उपस्थिति की मात्रा को एक कुशल चिन्तक ही अनुभव कर सकता है। जिस प्रकार काठ में अग्नि, जलपात्र में जल या घड़े के भीतर आकाश को समझा जा सकता है, उसी प्रकार जीव की भक्तिमय क्रियाओं को देखकर यह समझा जा सकता है कि वह असुर है या देवता। विचारशील व्यक्ति किसी मनुष्य के कर्मों को देखकर यह समझ सकता है कि उस मनुष्य पर भगवान की कृपा कहाँ तक है।