श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 1: समदर्शी भगवान्  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  7.1.27 
 
 
यथा वैरानुबन्धेन मर्त्यस्तन्मयतामियात् ।
न तथा भक्तियोगेन इति मे निश्चिता मति: ॥ २७ ॥
 
अनुवाद
 
  नारद मुनि ने आगे कहा- मनुष्य को भक्ति भाव से ईश्वर के विचारों में तल्लीन करने के लिए जितनी मेहनत करनी पड़ती है, उतनी शत्रुता से नहीं करनी पड़ती। इसलिए मेरा मानना है कि शत्रुता से ईश्वर के विचारों में अधिक तल्लीनता प्राप्त की जा सकती है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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