यथा वैरानुबन्धेन मर्त्यस्तन्मयतामियात् ।
न तथा भक्तियोगेन इति मे निश्चिता मति: ॥ २७ ॥
अनुवाद
नारद मुनि ने आगे कहा- मनुष्य को भक्ति भाव से ईश्वर के विचारों में तल्लीन करने के लिए जितनी मेहनत करनी पड़ती है, उतनी शत्रुता से नहीं करनी पड़ती। इसलिए मेरा मानना है कि शत्रुता से ईश्वर के विचारों में अधिक तल्लीनता प्राप्त की जा सकती है।