श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 9: वृत्रासुर राक्षस का आविर्भाव  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  6.9.39 
 
 
अथ ह वाव तव महिमामृतरससमुद्रविप्रुषा सकृदवलीढया स्वमनसि निष्यन्दमानानवरतसुखेन विस्मारितद‍ृष्टश्रुतविषयसुखलेशाभासा: परमभागवता एकान्तिनो भगवति सर्वभूतप्रियसुहृदि सर्वात्मनि नितरां निरन्तरं निर्वृतमनस: कथमु ह वा एते मधुमथन पुन: स्वार्थकुशला ह्यात्मप्रियसुहृद: साधवस्त्वच्चरणाम्बुजानुसेवां विसृजन्ति न यत्र पुनरयं संसारपर्यावर्त: ॥ ३९ ॥
 
अनुवाद
 
  अतः हे मधुसूदन! जिनके मन में आपकी महिमा के सागर से एक अमृत की बूँद भी उतर गई हैं उनके मन में सतत आनंद की धार बहती रहती है | ऐसे महात्मा जीव जो दृष्टि और श्रवण इंद्रियों से प्राप्त होने वाली तथाकथित भौतिक सुख की छाया को भूल जाते हैं | ऐसे भक्तगण सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाते हैं और सभी जीवों के वास्तविक मित्र बन जाते हैं | वे अपने मन को आप में समर्पित कर परमानंद की प्राप्ति करते हुए और जीवन के असली लक्ष्य को प्राप्त करने में निपुण होते हैं | हे भगवान! आप ऐसे भक्तों के प्रिय मित्र और आत्मा हैं जिन्हें इस भौतिक संसार में कभी वापस नहीं लौटना पड़ता | फिर वे आपकी भक्ति को कैसे त्याग सकते हैं?
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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