य एक ईशो निजमायया न:
ससर्ज येनानुसृजाम विश्वम् ।
वयं न यस्यापि पुर: समीहत:
पश्याम लिङ्गं पृथगीशमानिन: ॥ २५ ॥
अनुवाद
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, जिनकी बाह्य शक्ति से हमारी सृष्टि हुई और जिनकी कृपा से हम इस विश्व की सृष्टि को बढ़ाते हैं, निरंतर हमारे समक्ष परमात्मा के रूप में मौजूद हैं, किन्तु हम उनके स्वरूप को नहीं देख पाते। हम उन्हें देखने में असमर्थ होते हैं क्योंकि हम सभी अपने आपको पृथक और स्वतंत्र देवता समझते हैं।