विष्वग्विवर्धमानं तमिषुमात्रं दिने दिने ।
दग्धशैलप्रतीकाशं सन्ध्याभ्रानीकवर्चसम् ॥ १३ ॥
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं मध्याह्नार्कोग्रलोचनम् ॥ १४ ॥
देदीप्यमाने त्रिशिखे शूल आरोप्य रोदसी ।
नृत्यन्तमुन्नदन्तं च चालयन्तं पदा महीम् ॥ १५ ॥
दरीगम्भीरवक्त्रेण पिबता च नभस्तलम् ।
लिहता जिह्वयर्क्षाणि ग्रसता भुवनत्रयम् ॥ १६ ॥
महता रौद्रदंष्ट्रेण जृम्भमाणं मुहुर्मुहु: ।
वित्रस्ता दुद्रुवुर्लोका वीक्ष्य सर्वे दिशो दश ॥ १७ ॥
अनुवाद
राक्षस के शरीर की लंबाई, काली आग में झुलसे पहाड़ की तरह हर दिन बढ़ती ही जा रही थी। उसकी आभा संध्याकालीन बादलों की तरह गहरी और चमकीली थी। उसके शरीर के बाल, दाढ़ी और मूछें पिघले तांबे की तरह चमक रहे थे और उसकी आँखें दोपहर के सूरज की तरह जल रही थीं। हाथ में अपने चमकते हुए त्रिशूल के साथ वह ऐसे खड़ा था जैसे तीनों लोकों को अपने कन्धों पर लेकर चल रहा हो। जब वह चिल्लाता और नाचता था तो धरती भूकंप से कांपने लगती थी। वो बार-बार ऐसा मुंह खोलकर जम्हाई लेता था कि मानो उसे बंद करे बिना मुँह में ही आसमान समा जाए। यही नहीं, उसकी लंबी-लंबी और नुकीली दाढ़ों से लग रहा था जैसे वो सारा ब्रह्मांड चबाने वाला हो। इस राक्षस को देखकर हर कोई डर से भागने लगा।