श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 8: नारायण-कवच  »  श्लोक 8-10
 
 
श्लोक  6.8.8-10 
 
 
न्यसेद्‌धृदय ओंङ्कारं विकारमनु मूर्धनि ।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया न्यसेत् ॥ ८ ॥
वेकारं नेत्रयोर्युञ्‍ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु ।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुध: ॥ ९ ॥
सविसर्गं फडन्तं तत्सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत् ।
ॐ विष्णवे नम इति ॥ १० ॥
 
अनुवाद
 
  उसके बाद उसे छ: अक्षरों वाले मंत्र (ॐ विष्णवे नम:) का जप करना चाहिए। उसे ॐ को अपने हृदय पर, ‘वि’ को शिरो भाग पर, ‘ष’ को भौहों के बीच, ‘ण’ को चोटी पर और ‘वे’ को नेत्रों के बीच रखना चाहिए। तब मंत्र जपकर्ता ‘न’ अक्षर को अपने शरीर के सभी जोड़ों पर रखे और ‘म’ अक्षर को शस्त्र के रूप में ध्यान केंद्रित करे। इस तरह वह साक्षात मंत्र हो जाएगा। उसके बाद, उसे अंत में ‘म’ में विसर्ग जोड़कर ‘म: अस्त्राय फट्’ इस मंत्र का जप पूर्व दिशा से शुरू करके सभी दिशाओं में करे। इस तरह सभी दिशाएँ इस मंत्र के सुरक्षा कवच से बँध जाएँगी।
 
 
 
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