श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 18: राजा इन्द्र का वध करने के लिए दिति का व्रत  »  श्लोक 56
 
 
श्लोक  6.18.56 
 
 
मातृष्वसुरभिप्रायमिन्द्र आज्ञाय मानद ।
शुश्रूषणेनाश्रमस्थां दितिं पर्यचरत्कवि: ॥ ५६ ॥
 
अनुवाद
 
  हे राजन, सबका सम्मान करने वाले! इन्द्र ने दिति के मंसूबे को समझ लिया, इसलिए वो अपने स्वार्थ के लिए युक्ति सोचने लगा। उसने यह तर्क दिया कि आत्म-रक्षा प्रकृति का पहला नियम है, और इसलिए वो दिति की प्रतिज्ञा को भंग करना चाहता था। इसके लिए वो अपनी मौसी दिति की सेवा में लग गया, जो आश्रम में रह रही थी।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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