श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 16: राजा चित्रकेतु की परमेश्वर से भेंट  »  श्लोक 53-54
 
 
श्लोक  6.16.53-54 
 
 
यथा सुषुप्त: पुरुषो विश्वं पश्यति चात्मनि ।
आत्मानमेकदेशस्थं मन्यते स्वप्न उत्थित: ॥ ५३ ॥
एवं जागरणादीनि जीवस्थानानि चात्मन: ।
मायामात्राणि विज्ञाय तद् द्रष्टारं परं स्मरेत् ॥ ५४ ॥
 
अनुवाद
 
  जब कोई व्यक्ति गाढ़ निद्रा में होता है, तब वह स्वप्न देखता है और अपने अंदर अनेक विशाल पर्वत और नदियाँ या शायद संपूर्ण ब्रह्मांड को भी अपने भीतर देखता है, हालाँकि वे सभी वस्तुएँ बहुत दूर हैं। परंतु जब वह स्वप्न से जागता है तो देखता है कि वह मनुष्य रूप में अपने बिस्तर पर एक ही स्थान पर लेटा हुआ है। तब वह अपने को अनेक स्थितियों में पाता है जैसे कि विशेष राष्ट्रीयता, परिवार आदि। पूर्ण नींद, स्वप्न और जाग्रत ये सभी अवस्थाएँ भगवान की शक्तियाँ ही हैं। मनुष्य को इन अवस्थाओं के मूल रचयिता को, जो इनसे अप्रभावित रहता है, हमेशा याद रखना चाहिए।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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