श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 26: नारकीय लोकों का वर्णन  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  5.26.36 
 
 
यस्त्विह वा आढ्याभिमतिरहङ्कृतिस्तिर्यक्प्रेक्षण: सर्वतोऽभिविशङ्की अर्थव्ययनाशचिन्तया परिशुष्यमाणहृदयवदनो निर्वृतिमनवगतो ग्रह इवार्थमभिरक्षति स चापि प्रेत्य तदुत्पादनोत्कर्षणसंरक्षणशमलग्रह: सूचीमुखे नरके निपतति यत्र ह वित्तग्रहं पापपुरुषं धर्मराजपुरुषा वायका इव सर्वतोऽङ्गेषु सूत्रै: परिवयन्ति ॥ ३६ ॥
 
अनुवाद
 
  इस लोक अथवा जीवन में अपनी धन-संपत्ति पर गर्व करनेवाला मनुष्य सदैव सोचता रहता है कि मैं बड़ा धनी हूँ, मेरी बराबरी कौन कर सकता है? उसकी नजर टेढ़ी हो जाती है और वह सदैव डरा रहता है कि कोई उसके धन को न छीन ले। वह अपने से बड़ों पर आशंका करता है। अपनी धन-संपत्ति हानि के विचार से ही उसका मुँह और हृदय सूखने लगते हैं, इसलिए वह सदैव अति दुष्ट अभागे मनुष्य की तरह दिखता है। उसे वास्तविक सुख नहीं मिल पाता और वह यह नहीं जानता कि चिन्तामुक्त जीवन कैसा होता है। धन कमाने, बढ़ाने और उसकी रक्षा के लिए वह जो पापकर्म करता है, उसके कारण उसे सूचीमुख नामक नरक में रखा जाता है जहाँ यमराज के दूत उसके पूरे शरीर को दर्जी की तरह धागे से सिल देते हैं।
 
 
 
  Connect Form
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
  © copyright 2024 vedamrit. All Rights Reserved.